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मैं जो कुछ कहने जा रहा हूँ वो एक स्याह सच है जिसे मेरी एक मित्र ने झेला है, या यों कहें कि उसने इस त्रासदी को जिया है. वो कश्मीर की रहने वाली है, वही कश्मीर जिसे इस धरती का स्वर्ग कहा जाता है, मगर स्वर्ग में उसने नर्क को देखा और जिया. उसके नर्क को मैं आप तक इस कविता के माध्यम से पहुंचा रहा हूँ. अगर इसे पढ़कर आप उस स्याह सच को महसूस कर सकें तो मैं समझूंगा कि आपकी संवेदना उसके साथ है.
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मीता
कुछ बात करो
अपने ग़मों के बादल से
अश्कों की बरसात करो
और
मैं चातक बन कर
तुम्हारे दर्द की बूंदों को
सहेज लूँगा अपने होठों पर
मीता
कुछ तो बात करो……..
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मीता
क्या बात करूँ
क्या याद करूँ
किससे जाकर फरियाद करूँ?
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बस बारह बसंत देखे थे मैंने
हिरनी-सी कुलांचे भरती
वन-उपवन,घर आँगन देहरी
मस्ती छाई रहती थी
फिर
फिर वो दिन आया
सूरज पर काली छाया
अचानक कहीं बन्दूक चली
चीख-पुकार की कोहराम मची
भैया,पापा खून से लथपथ
सीने से भींचकर मम्मी मुझे
काँप रही थी थरथर-थरथर
यकायक माँ भी गिर गयी
शायद गोली उसे भी लग गयी
फिर दो हाथों ने मुझे उठाया
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रौंद दिया कली का बचपन
उजड़ चुका था एक चमन
एक भयावह सपने-सा सच
दिन-रात लिए मैं फिरती हूँ
याद न आये उन यादों की
इसलिए चुप मैं रहती हूँ
क्या बात करूँ
मीता
क्या बात करूँ
ग़मों के हिमखंड अडिग हैं
क्या बरसात करूँ
मीता, क्या बात करूँ.
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मेरे होठों पर शब्द नहीं
दिमाग संज्ञां-शून्य हुआ जाता है
सुनकर तुम्हारी दास्ताँ
दम घुटा जाता है
तुमने तो त्रासदी झेला है
तुम्हारे साथ ग़मों का मेला है.
मीता…..
फिर भी ज़िन्दगी जीना है
हर गम को पीना है
रात कितनी भी स्याह क्यों न हो
हर रात की सुबह होती है
ग़मों के मझधार से लड़े जो
वही काबिल
समंदर पार करके ही
बहादुर पाते हैं साहिल
मीता
तुम्हें उठना होगा
लड़ना होगा,जीना होगा
वो हिम्मत क्या
जो यूँ ही टूट जाये
वो पकड़ ही क्या
जो यूँ ही छूट जाये
ज़िन्दगी फिर बुलाती है तुम्हें
रूठी खुशियाँ फिर मनाती हैं तुम्हें
मीता
अब बोलो
कुछ बात करोगी……………….
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हाँ! मीता
मैं बात करुँगी
ज़िन्दगी से दो-दो हाथ करुँगी
हार न मानूंगी मैं कभी
मीता
मैं बात करुँगी.
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